तो अंततः हमारे देश की छवि बदल रही है। हम अब 'सॉफ्ट स्टेट' नहीं रहे। ईंट का जवाब पत्थर से देना आ गया हमें। आतंकवादियों को उनके "घर में घुस कर मारो" का नारा अब सार्थक हो गया। फिर भी मुझे चिंता किस बात की है?
सुषमा जी ने पाकिस्तान की ओर ऊँगली उठाते हुए कहा था - जिनके घर शीशे के बने हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते। शायद मेरी चिंता यहीं से है? जिस देश की धरती पर सेना के जवान आतंकवादियों से खुद सुरक्षित ना हों, उस देश की जनता क्या शीशे के घर में नहीं रहती? मुम्बई हमले में आतंकी रेलवे स्टेशन पर गोलियों से लोगों को भूनते रहे और एक पुलिसवाला उनपर कुर्सी फेंक कर रोकने की कोशिश करता है। सामान्य रस्ते फुटपाथ की तो छोड़िये, ताज जैसे पाँच सितारा होटल में मौत का तांडव करने आतंकी घुसना चाहते हैं तो घुस ही जाते हैं। तब से आज तक क्या हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा इतनी बेहतर हो गई है कि हम अंतरराष्ट्रीय आतंवादी संगठनों को ललकार सकें? तो चिंता की बात तो है ही...
चिंता की बात तो देश की छवि बदलना भी है। हम गाँधी के अहिंसावादी देश के लोग जो कभी युद्ध का प्रथम कदम नहीं उठाएंगे और हमने कभी किसी और देश में घुसपैठ नहीं की, सीमा का उल्लंघन नहीं किया, मासूमों की जान नहीं ली - अब क्या हम ये सब गर्व से कह सकते हैं? माना कि हमारी सेना ने कहा कि सीमा पार सिर्फ आतंकियों को मारा गया पर क्या हम निश्चय से ऐसा कह सकते हैं कि उस ऑपरेशन में बेगुनाहों का खून नहीं बहा? ओसामा को मारने गई अमेरिकी टुकड़ी ने भी घर में एक अन्य महिला को मारा ही था।
तो सीमा से सटे गाँव खाली कराये जा रहे हैं, स्कूल बंद हो गए हैं, ये सब एक बार के लिए तो हो भी जाये पर बार-बार नहीं किया जा सकता। भारत के लोग इजराइलियों की तरह नहीं हैं। "खून का बदला खून" और "उनके घर में घुस कर मारो" ये हमारे राष्ट्रीय नारे कभी नहीं थे। हिंसा किसी समस्या का समाधान हो सकती है पर कश्मीर समस्या का समाधान जरुरी नहीं कि यही हो। धारा ३७० को हटाने से भी काफी समस्या हल हो सकती है।
क्या अपने देश की आक्रामक छवि से चिंतित होना गलत है? क्या टीवी न्यूज़ चैनल्स की "घर में घुस के मारो" के नारों पर शरीर में क्रिकेट मैच जैसा रोमांच पैदा न होना कायरता की निशानी है? क्या बुद्धिजीवियों को जनता की नब्ज समझकर हिंसा को सही ठहराने की कोशिश करनी चाहिए?
क्या अपने घर शीशे के बने हों तो भी दूसरों पर पत्थर फेंकने चाहिए?
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सुषमा जी ने पाकिस्तान की ओर ऊँगली उठाते हुए कहा था - जिनके घर शीशे के बने हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते। शायद मेरी चिंता यहीं से है? जिस देश की धरती पर सेना के जवान आतंकवादियों से खुद सुरक्षित ना हों, उस देश की जनता क्या शीशे के घर में नहीं रहती? मुम्बई हमले में आतंकी रेलवे स्टेशन पर गोलियों से लोगों को भूनते रहे और एक पुलिसवाला उनपर कुर्सी फेंक कर रोकने की कोशिश करता है। सामान्य रस्ते फुटपाथ की तो छोड़िये, ताज जैसे पाँच सितारा होटल में मौत का तांडव करने आतंकी घुसना चाहते हैं तो घुस ही जाते हैं। तब से आज तक क्या हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा इतनी बेहतर हो गई है कि हम अंतरराष्ट्रीय आतंवादी संगठनों को ललकार सकें? तो चिंता की बात तो है ही...
चिंता की बात तो देश की छवि बदलना भी है। हम गाँधी के अहिंसावादी देश के लोग जो कभी युद्ध का प्रथम कदम नहीं उठाएंगे और हमने कभी किसी और देश में घुसपैठ नहीं की, सीमा का उल्लंघन नहीं किया, मासूमों की जान नहीं ली - अब क्या हम ये सब गर्व से कह सकते हैं? माना कि हमारी सेना ने कहा कि सीमा पार सिर्फ आतंकियों को मारा गया पर क्या हम निश्चय से ऐसा कह सकते हैं कि उस ऑपरेशन में बेगुनाहों का खून नहीं बहा? ओसामा को मारने गई अमेरिकी टुकड़ी ने भी घर में एक अन्य महिला को मारा ही था।
तो सीमा से सटे गाँव खाली कराये जा रहे हैं, स्कूल बंद हो गए हैं, ये सब एक बार के लिए तो हो भी जाये पर बार-बार नहीं किया जा सकता। भारत के लोग इजराइलियों की तरह नहीं हैं। "खून का बदला खून" और "उनके घर में घुस कर मारो" ये हमारे राष्ट्रीय नारे कभी नहीं थे। हिंसा किसी समस्या का समाधान हो सकती है पर कश्मीर समस्या का समाधान जरुरी नहीं कि यही हो। धारा ३७० को हटाने से भी काफी समस्या हल हो सकती है।
क्या अपने देश की आक्रामक छवि से चिंतित होना गलत है? क्या टीवी न्यूज़ चैनल्स की "घर में घुस के मारो" के नारों पर शरीर में क्रिकेट मैच जैसा रोमांच पैदा न होना कायरता की निशानी है? क्या बुद्धिजीवियों को जनता की नब्ज समझकर हिंसा को सही ठहराने की कोशिश करनी चाहिए?
क्या अपने घर शीशे के बने हों तो भी दूसरों पर पत्थर फेंकने चाहिए?
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