Sunday, September 2, 2018

गो-तश्करों की पिटाई और गौरक्षकों का आतंक

हाल के दिनों में मीडिया में ऐसी खबरों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है जिसमे बेगुनाह मुसलमान व्यक्तियों को गोरक्षा के नाम पर पीटा जाता है।

मैं हिंसा का समर्थन नहीं करता पर हाल में देश में जो माहौल बना है उसे समझ जा सकता है। कानून तो ७० साल से था पर सच ये है कि गोतश्करों को रोकने में बिल्कुल नाकाम था। तो कुछ युवाओं ने कहा कि "अब बस" और लगे खुद ही तश्करों को पकड़ने और सजा देने। यही चीज जब फिल्मों में दिखाई जाती है, जब हीरो गुंडों को मारता है तो सब सीटी बजाते हैं और पसंद करते हैं। जब रेपिस्ट्स को बीच बाजार लटकाने की बात आती है तो अधिकांश लोग "कानून को हाथ में मत उठाना" ऐसा कहते नहीं दीखते। बस जब गोहत्या और गोतश्करों की बात आती है तो कानून याद आता है और हम देश के कानूनी रखवाले और आदर्श नागरिक बन जाते हैं। ऐसा क्यों?

मुद्दे की बात ये है कि अभी जो माहौल है उससे सालों से गोहिंसा और गोतश्करी करते आ रहे वर्ग विशेष में खलबली है। मीडिया जो एक तरह की बात को ज्यादा हाईलाइट करता है वो भी बात समझी जा सकती है। बस "गेहूं के साथ घुन पिसता है' की कहावत की तरह कुछ बेगुनाह लोगों को सतर्क रहना होगा।

यदि राज्यों की पुलिस अब देश के माहौल को देखते हुए गोतश्करों के खिलाफ खुद अच्छे से एक्शन लेती है तो ये गोरक्षकों द्वारा कानून हाथ में लेने की घटनाएँ अपनेआप रुक जाएँगी। पर बिकाऊ मीडिया को "बेगुनाह पीटा गया" दिखा-दिखा कर टी आर पी बटोरनी है; तो देखें क्या होता है।

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