- प्रो. निरंजन कुमार, दैनिक जागरण
नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए दस जनवरी से देशभर में लागू कर दिया गया। इसके बावजूद इस कानून का विरोध राजनीतिक दायरे से बाहर निकलकर संवैधानिक और धार्मिक-सांस्कृतिक धरातल पर भी होने लगा है। केरल की विधानसभा द्वारा इस कानून को रद करने का प्रस्ताव पारित करना अथवा विरोध प्रदर्शन के दौरान फैज अहमद फैज की मजहबी प्रतीकों वाली नज्म हम देखेंगे गाया जाना, फ्री कश्मीर के पोस्टर लहराना और हंिदूू विरोधी उत्तेजक धार्मिक नारे लगाया जाना इसी की बानगी है। झूठ के सहारे सीएए का विरोध संवैधानिक और सांस्कृतिक धरातल पर खतरनाक तो है ही, राजनीतिक रूप से भी अनैतिक है। केरल विधानसभा द्वारा सीएए कानून को रद करने का प्रस्ताव अभूतपूर्व और संविधान का पूरी तरह से उल्लंघन है। अब तो केरल सरकार सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गई है। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्यों और संघ के मध्य विषयों/अधिकारों के बंटवारे का उल्लेख है। राष्ट्रीय महत्व से संबंधित विषयों को संघ सूची में रखा गया है, जिन पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है। नागरिकता या जनगणना जैसे विषय संघ सूची में ही हैं। संविधान में उल्लिखित अनुच्छेद 245 से 255 का सार यही है कि संसद द्वारा बनाए गए कानून का अनुपालन प्रत्येक राज्य को करना ही पड़ेगा। इसे न मानने का अर्थ है संविधान का उल्लंघन। केरल विधानसभा ने इस संवैधानिक लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया। वहां के मुख्यमंत्री विभिन्न राज्यों को इस कानून के विरोध के लिए उकसा रहे हैं। इससे तो हमारे संविधान का ढांचा ही चरमरा उठेगा। सीएए विरोधियों का यह तर्क नितांत गलत है कि सीएए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। कई विधि विशेषज्ञ यह कह चुके हैं कि ऐसा कुछ नहीं है।
सीएए विरोध में धीरे-धीरे मजहबी और ऐसे सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल हो रहा है जो विवादास्पद हैं। नज्म हम देखेंगे के समर्थकों का दावा है कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है और फैज ने पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक की तानाशाही के खिलाफ इसे लिखा था, लेकिन जिन फैज को क्रांतिकारी, पंथनिरपेक्ष और मानवतावादी बताया जा रहा है उन्होंने 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा बांग्लादेश में लाखों लोगों के नरसंहार पर चुप्पी साध ली थी, क्योंकि वह जुल्फिकार अली भुट्टो के समर्थक थे।
सांस्कृतिक प्रतीक देश और काल के सापेक्ष होते हैं और उसी परिप्रेक्ष्य में लोग इसका अर्थ ग्रहण करते हैं। मिसाल के लिए इंग्लैंड आदि देशों में उल्लू बुद्धिमानी का प्रतीक है। क्या हम भारत में भी किसी को उल्लू कह सकते हैं और यह तर्क दे सकते हैं कि वह तो उसकी तारीफ कर रहे थे? फैज की नज्म तानाशाही वाले इस्लामी मुल्कों में ही ठीक है। पाकिस्तान जैसे मुल्कों में जहां इस्लाम राजधर्म है वहां मजहबी प्रतीकों से लबरेज यह नज्म प्रतिरोध के रूप में, शायद गलत नहीं हो, पर भारत जैसे पंथनिरपेक्ष देश में इस तरह के मजहबी प्रतीक गलतफहमियां पैदा करेंगे। पाकिस्तान में इस्लाम का जो कट्टर रूप मौजूद है वह किसी भी दूसरे पंथ-पूजा को बर्दाश्त नहीं कर पाता। भगवान बुद्ध की अफगानिस्तान के बामयान में स्थित चौथी-पांचवीं शताब्दी में बनी प्रतिमाओं को कट्टरपंथी मुसलमानों ने टैंक लगाकर इसलिए उड़ा दिया था कि इस्लाम में बुत या मूर्ति के लिए कोई जगह नहीं है और अल्लाह ही एकमात्र ईश्वर है। पाकिस्तान में आए दिन मंदिर तोड़े जाने और धमार्ंतरण आदि की घटनाएं घटती रहती हैं।
सीएए विरोध का एक आयाम राजनीतिक भी है। सीएए के बहाने मोदी सरकार पर निशाना लगाने का विपक्षी राजनीतिक दलों को जैसे मौका मिल गया है। गहराई से देखें तो कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी, टीएमसी, सपा, बसपा, आप, राजद आदि दलों और उनके नेताओं को मुस्लिम वोटों को गोलबंद करने का एक सुनहरा अवसर दिख रहा है। मुसलमानों को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए इन राजनीतिक दलों में एक कंपटीटिव पॉलिटिक्स चल रही है। मुस्लिम समुदाय को समझना चाहिए कि सीएए से भारतीय मुसलमानों के किसी भी अधिकार या नागरिकता पर कोई आंच नहीं आने वाली। यह तो कुछ लोगों को नागरिकता देने का कानून है, किसी की नागरिकता लेने का नहीं। विपक्षी दल मुसलमानों का भला की जगह बुरा ही कर रहे हैं। वैसे भी मुसलमानों के असली मुद्दे तो इन दलों की चिंता का विषय शायद ही कभी होते हैं। मुस्लिम समुदाय को अपने राजनीतिक इस्तेमाल के प्रति सचेत होना चाहिए।
पूरे प्रकरण में एक अन्य खतरनाक बात यह है कि मुसलमानों को डराने के लिए मीडिया का एक वर्ग और तथाकथित बुद्धिजीवी किसी भी अतिवाद तक जाने को तैयार हैं। दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में सीएए के विरोध में कुछ लोग एक माह से सड़क पर कब्जा जमाए बैठे हैं। इसके कारण हर दिन लाखों लोग परेशान हो रहे हैं, लेकिन विपक्षी दलों और मीडिया का एक हिस्सा इसकी अनदेखी करने में लगा हुआ है। नि:संदेह ये भी अच्छे संकेत नहीं कि विरोध प्रदर्शनों में फ्री कश्मीर के पोस्टर लहराए जा रहे हैं। सीएए का विरोध नैतिक रूप से भी गलत है। सीएए में इस्लामी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मजहबी आधार पर उत्पीड़ित छह धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने की बात है। इन लोगों की वहां क्या हालत है, इसका अंदाजा वहां उनकी तेजी से घटती जनसंख्या से लगा सकते हैं। यह अनायास नहीं कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल से लेकर मनमोहन सिंह, अशोक गहलोत, प्रकाश करात अथवा ममता बनर्जी आदि ने पूर्व में मजहबी आधार पर उत्पीड़ितों को भारत में शरण देने की पुरजोर वकालत की थी। छल-प्रपंच का सहारा लेकर सीएए का विरोध एक खतरनाक सियासत है। इसके भयानक दुष्परिणाम हो सकते हैं।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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